सिडनी। जिस श्रृंखला में सचिन तेंदुलकर, रिकी पोंटिंग, मैथ्यू हेडन, एडम गिलक्रिस्ट, युवराज सिंह और कुमार संगकारा जैसे धुरंधर बल्लेबाज मौजूद हों, उसमें किसी अन्य बल्लेबाज के हावी होने की उम्मीद कम ही की जा सकती है। लेकिन गौतम गंभीर ने मौजूदा त्रिकोणीय श्रृंखला में इन सभी दिग्गजों को पीछे छोड़ दिया है। ऑस्ट्रेलिया, भारत और श्रीलंका के बीच लीग मैचों की समाप्ति के बाद गंभीर इस श्रृंखला में रन बनाने के मामले में सबसे आगे हैं। वे इस श्रृंखला में अब तक 400 से ज्यादा रन बनाने वाले एकमात्र बल्लेबाज हैं।
त्रिकोणीय श्रृंखला विशेष दिल्ली के गौतम गंभीर ने इस श्रृंखला में आठ मैचों में 70.33 के प्रभावशाली औसत से 422 रन बनाए हैं। भारत को उम्मीद रहेगी कि उनके इस शानदार फॉर्म का सिलसिला ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ ‘बेस्ट ऑफ थ्री’ फाइनल्स में भी बना रहे। गंभीर ने इस श्रृंखला में दो शतक भी बनाए हैं और ऐसा करने वाले वे एकमात्र बल्लेबाज हैं।फाइनल की दौड़ से पहले ही बाहर हो चुकी श्रीलंकाई टीम के कुमार संगकारा आठ मैचों में 326 रन बनाकर दूसरे और ऑस्ट्रेलिया के विकेटकीपर बल्लेबाज एडम गिलक्रिस्ट आठ मैचों में 313 रन बनाकर तीसरे स्थान पर हैं। भारतीय कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी आठ मैचों में 296 रन बनाकर चौथे और ऑस्ट्रेलिया के माइकल क्लार्क इतने ही मैचों में 293 रन बनाकर पांचवें स्थान पर हैं।अब त्रिकोणीय श्रृंखला में सर्वाधिक रन बनाने के लिए मुकाबला गंभीर, गिलक्रिस्ट, धोनी और क्लार्क के बीच सिमटता नजर आ रहा है, क्योंकि अन्य धुरंधर बल्लेबाज इनसे कहीं पीछे हैं।सचिन तेंदुलकर का बल्ला श्रृंखला में जमकर नहीं बोला है और वे आठ मैचों में 23.87 के सामान्य औसत से सिर्फ 191 रन ही बना पाए हैं।
सचिन तेंदुलकर का मुंहतोड़ जवाब
भारतीय उपकप्तान युवराज सिंह की भी ऐसी ही स्थिति है। वे सात मैचों में 22.00 के मामूली औसत से सिर्फ 154 रन बना पाए हैं। वहीं युवा बल्लेबाज रोहित शर्मा ने आठ मैचों में 33.40 के औसत से 167 रन बनाए हैं। भारत को उम्मीद रहेगी कि इन तीनों बल्लेबाजों का बल्ला फाइनल मैचों में जमकर चले ताकि भारत यह श्रृंखला जीतकर ऑस्ट्रेलियाइयों का मुंह बंद कर सके।दूसरी तरफ ऑस्ट्रेलियाई कप्तान पोंटिंग ने आठ मैचों में 23.62 के औसत से 189 रन, मैथ्यू हेडन ने छह मैचों में 26.83 के औसत से 161 रन और माइक हसी ने आठ मैचों में 47.25 के औसत से 189 रन बनाए हैं।
पोंटिंग ने ग्यारह हजार का आंकड़ा छुआ इस श्रृंखला में बल्लेबाजी में सबसे फ्लॉप सितारे श्रीलंका के सलामी बल्लेबाज सनथ जयसूर्या रहे, जो आठ मैचों में 14.71 के मामूली औसत से 103 रन ही बना सके।
Saturday, March 1, 2008
‘रोबो’ के लिए दुबली होंगी ऐश

निर्देशक शंकर की फिल्म ‘रोबो’ लगातार चर्चाओं में बनी हुई है। इस फिल्म में दक्षिण के सुपरस्टार रजनीकांत काम कर रहे हैं। फिल्म में ऐश्वर्य भी अहम किरदार निभा रही हैं। निर्देशक शंकर ने ऐश्वर्य को वजन कम करने की सलाह दी है। पहले यह अफवाह उभरी थी कि ऐश्वर्य ने यह फिल्म छोड़ दी है। लेकिन कुछ दिन पहले दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने खुलेआम इस बात की घोषणा की कि वे इस विज्ञान परिकल्पना आधारित फिल्म में काम कर रही हैं। इधर निर्देशक शंकर ने फिल्म की जरूरत के मुताबिक ऐश से अपना वजन कम करने को कहा है। अपनी हालिया फिल्म ‘जोधा अकबर’ में कुछ मोटी दिखाई पड़ने वाली ऐश अब अपना बदन तराशने के लिए रोजाना जिम भी जाने लगी हैं। साथ ही वजन कम करने के लिए वे अपने खान-पान पर भी विशेष ध्यान दे रही एक तरफ इस फिल्म में ऐश जहां काफी छरहरी दिखाई पड़ेंगी वहीं इसमें उनके कुछ एक्शन दृश्य भी होंगे। खबरों के मुताबिक इस फिल्म के ऐश को अग्रिम राशि के तौर पर काफी कीमत मिली है। इस फिल्म को साइन कर वे देश की सबसे महंगी अभिनेत्री बन गई हैं। पढ़ें:- फिल्म ‘रोबो’ के लिए तीन बड़ी हस्तियां निर्देशक शंकर, संगीतकार ए. आर. रहमान और सुपरस्टार रजनीकांत साथ हुए हैं। दिलचस्प है कि सुपरहिट फिल्म ‘शिवाजी-द बॉस’ के लिए भी यही तिकड़ी साथ हुई थीं जो दक्षिण भारत और विदेशों में जबर्दस्त हिट रही। तो इस बार भी यही उम्मीद करें कि यह तिकड़ी एक बार फिर धमाल मचा देगी।
होली पर 400 विशेष रेलगाड़ियां

नई दिल्ली। होली पर यात्रियों की भीड़भाड़ बढ़ने की संभावना को देखते हुए उत्तर रेलवे ने 15 मार्च से 400 विशेष गाड़ियां चलाने की घोषणा की है।
ये गाड़ियां दिल्ली के विभिन्न स्टेशनों से लखनऊ, वाराणसी, जम्मू, पटना, देहरादून, दरभंगा और लुधियाना से सहरसा के बीच चलाई जाएगी। इनमें से अधिकतर गाड़ियां 31 मार्च तक चलाई जाएगी।
ये गाड़ियां दिल्ली के विभिन्न स्टेशनों से लखनऊ, वाराणसी, जम्मू, पटना, देहरादून, दरभंगा और लुधियाना से सहरसा के बीच चलाई जाएगी। इनमें से अधिकतर गाड़ियां 31 मार्च तक चलाई जाएगी।
आधी जमीं हमारी आधा आसमां हमारा
त्रिआयामी है हमारे लिए मार्च का महीना। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है, सखी का सातवां वार्षिकांक है और साथ में फाल्गुन की नेह मस्ती भी इस गुलाबी मौसम में अपने इंद्रधनुषी रंग बिखेर रही है। आशाओं के दीप सजाए समूची आधी आबादी नित नई ऊंचाइयों को छू रही है। बडी-सी दुनिया में अपनी जगह बनाने को निरंतर चल रही है। पतझड और बसंत की जुगलबंदी के बीच जब दरख्तों ने अपने पुराने लिबास झाड दिए हैं और नए ताजा हरे पत्तों के आवरण में खुद को लपेट लिया है, स्त्रियों ने भी अपने भीतर नए आत्मविश्वास, चिंतन और विचारशीलता को आत्मसात करने का संकल्प ले लिया है। बसंत के इसी मदमाते-मोहक मौसम में आता है स्त्रियों का अपना त्योहार यानी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस, जिसकी प्रणेता थीं जर्मनी की शिक्षिका और नारीवादी क्लारा जेटकिन। प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका सीमोन दि बोउवार का कथन है, स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, कोई भी इस बात का प्रमाण नहीं दे सकता कि किसी स्त्री के लिए होमर, अरस्तू, माइकल एंजेलो, बिथोवन बनना असंभव है, लेकिन इस बात का प्रमाण दिया जा सकता है कि कोई स्त्री महारानी एलिजाबेथ, दि बोरा या जॉन ऑफ आर्क बन सकती है, क्योंकि ये उदाहरण खुद में प्रमाण हैं। दिलचस्प बात यह है कि मौजूदा सामाजिक धारणाएं स्त्रियों को जिन कार्यक्षेत्रों के अयोग्य मानती हैं, उनमें ये स्त्रियां पहले ही सफल होकर दिखा चुकी हैं। ऐसा कोई कानून नहीं है जो किसी स्त्री को शेक्सपियर के नाटक लिखने या मोजार्ट के सारे ऑपेरा संगीतबद्ध करने से रोकता हो..।
इतिहास गवाह है
भारत की बात करें तो वैदिक काल में स्त्री पुरुष से कमतर नहीं थी। धर्म और दर्शन के गूढ क्षेत्रों में गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा, घोषा, सुलभा जैसे चरित्र बेहद मजबूत स्थिति में रहे हैं। इतिहास में हम झांसी की रानी, रजिया सुल्तान, नूरजहां, मुमताज महल जैसे किरदारों के बारे में पढते हैं। उन्नीसवीं सदी में राजा राममोहन रॉय और उनके ब्रह्म समाज, ईश्वरचंद विद्यासागर, दयानंद सरस्वती और आर्य समाज, पारसी और ईसाई समुदायों के संयुक्तप्रयासों से 1902 में स्त्री मुक्ति की दिशा में सराहनीय कार्य हुए। 1904 में एनी बेसेंट ने एक गर्ल्स कॉलेज की स्थापना की। 1916 में दिल्ली में पहले गर्ल्स मेडिकल कॉलेज और मुंबई में एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय स्थापित हुए। 1927 में पहली बार भारतीय महिला कॉन्फ्रेंस हुई। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में राजकुमारी अमृत कौर, दुर्गाभाई देशमुख, विजयलक्ष्मी पंडित, सरोजनी नायडू, मैडम भीकाजी कामा जैसी स्त्रियों के नाम उल्लेखनीय हैं तो आजादी के बाद लौह महिला इंदिरा गांधी जैसी शक्तिशाली प्रधानमंत्री बनीं।
होंगे कामयाब एक दिन
21 वीं सदी तो स्त्रियों की है। न सिर्फ विभिन्न रोजगारों में बल्कि राजनीति, विज्ञान जैसे क्षेत्रों में भी उन्होंने अपनी विजय पताका फहराई है। विभिन्न स्त्रोतों से मिले आंकडों को एकत्र करें तो आज के समय में आईटी इंडस्ट्री, बीपीओ, चिकित्सा, प्रशासन, व्यवसाय, सैन्य क्षेत्रों में उनकी दमदार मौजूदगी नजर आने लगी है। आई टी इंडस्ट्री में 1981 में जहां पुरुषों के मुकाबले सिर्फ 19.7 प्रतिशत स्त्रियां काबिज थीं, वहीं 1991 में यह संख्या 22.7 फीसदी हो गई। नैसकॉम के ताजा आंकडे बताते हैं कि पिछले दो वर्षो में भारत में स्त्रियों के लिए रोजगार में लगभग 18 फीसदी तक बढोतरी हुई है। माना जा रहा है कि वर्ष 2010 तक स्त्री तकनीशियनों की संख्या 50 फीसदी तक बढ जाएगी। सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में पिछले वर्ष के अंत तक लडकियों का अनुपात 76-26 था, लेकिन आगे 2008 के अंत तक यह अनुपात 76-36 तक हो जाएगा, इसकी पूरी संभावना व्यक्त की जा रही है।
स्त्रियों के पक्ष में हैं संस्थाएं
कंपनियों ने भी स्त्रियों के हित में कार्य स्थितियों को काफी हद तक बदला है। तमाम संस्थान मानने लगे हैं कि स्त्रियां ज्यादा ईमानदार कर्मचारी साबित होती हैं, लिहाजा वे इस बात पर सहमत हैं कि स्त्रियों को घर और दफ्तर के बीच सामंजस्य बिठाने के लिए हरसंभव सुविधाएं प्रदान की जाएं। मसलन उनके काम के घंटे कम किए जाएं, उनके लिए पार्ट टाइम नौकरियों की व्यवस्था की जाए, छोटे बच्चों की मांओं को सुविधा रहे, इसलिए दफ्तरों में क्रेश बनाए जाएं, उन्हें आने-जाने की सुविधा देने के साथ ही अपने ढंग से कार्य करने की आजादी दी जाए।
इतिहास गवाह है
भारत की बात करें तो वैदिक काल में स्त्री पुरुष से कमतर नहीं थी। धर्म और दर्शन के गूढ क्षेत्रों में गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा, घोषा, सुलभा जैसे चरित्र बेहद मजबूत स्थिति में रहे हैं। इतिहास में हम झांसी की रानी, रजिया सुल्तान, नूरजहां, मुमताज महल जैसे किरदारों के बारे में पढते हैं। उन्नीसवीं सदी में राजा राममोहन रॉय और उनके ब्रह्म समाज, ईश्वरचंद विद्यासागर, दयानंद सरस्वती और आर्य समाज, पारसी और ईसाई समुदायों के संयुक्तप्रयासों से 1902 में स्त्री मुक्ति की दिशा में सराहनीय कार्य हुए। 1904 में एनी बेसेंट ने एक गर्ल्स कॉलेज की स्थापना की। 1916 में दिल्ली में पहले गर्ल्स मेडिकल कॉलेज और मुंबई में एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय स्थापित हुए। 1927 में पहली बार भारतीय महिला कॉन्फ्रेंस हुई। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में राजकुमारी अमृत कौर, दुर्गाभाई देशमुख, विजयलक्ष्मी पंडित, सरोजनी नायडू, मैडम भीकाजी कामा जैसी स्त्रियों के नाम उल्लेखनीय हैं तो आजादी के बाद लौह महिला इंदिरा गांधी जैसी शक्तिशाली प्रधानमंत्री बनीं।
होंगे कामयाब एक दिन
21 वीं सदी तो स्त्रियों की है। न सिर्फ विभिन्न रोजगारों में बल्कि राजनीति, विज्ञान जैसे क्षेत्रों में भी उन्होंने अपनी विजय पताका फहराई है। विभिन्न स्त्रोतों से मिले आंकडों को एकत्र करें तो आज के समय में आईटी इंडस्ट्री, बीपीओ, चिकित्सा, प्रशासन, व्यवसाय, सैन्य क्षेत्रों में उनकी दमदार मौजूदगी नजर आने लगी है। आई टी इंडस्ट्री में 1981 में जहां पुरुषों के मुकाबले सिर्फ 19.7 प्रतिशत स्त्रियां काबिज थीं, वहीं 1991 में यह संख्या 22.7 फीसदी हो गई। नैसकॉम के ताजा आंकडे बताते हैं कि पिछले दो वर्षो में भारत में स्त्रियों के लिए रोजगार में लगभग 18 फीसदी तक बढोतरी हुई है। माना जा रहा है कि वर्ष 2010 तक स्त्री तकनीशियनों की संख्या 50 फीसदी तक बढ जाएगी। सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में पिछले वर्ष के अंत तक लडकियों का अनुपात 76-26 था, लेकिन आगे 2008 के अंत तक यह अनुपात 76-36 तक हो जाएगा, इसकी पूरी संभावना व्यक्त की जा रही है।
स्त्रियों के पक्ष में हैं संस्थाएं
कंपनियों ने भी स्त्रियों के हित में कार्य स्थितियों को काफी हद तक बदला है। तमाम संस्थान मानने लगे हैं कि स्त्रियां ज्यादा ईमानदार कर्मचारी साबित होती हैं, लिहाजा वे इस बात पर सहमत हैं कि स्त्रियों को घर और दफ्तर के बीच सामंजस्य बिठाने के लिए हरसंभव सुविधाएं प्रदान की जाएं। मसलन उनके काम के घंटे कम किए जाएं, उनके लिए पार्ट टाइम नौकरियों की व्यवस्था की जाए, छोटे बच्चों की मांओं को सुविधा रहे, इसलिए दफ्तरों में क्रेश बनाए जाएं, उन्हें आने-जाने की सुविधा देने के साथ ही अपने ढंग से कार्य करने की आजादी दी जाए।
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