त्रिआयामी है हमारे लिए मार्च का महीना। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है, सखी का सातवां वार्षिकांक है और साथ में फाल्गुन की नेह मस्ती भी इस गुलाबी मौसम में अपने इंद्रधनुषी रंग बिखेर रही है। आशाओं के दीप सजाए समूची आधी आबादी नित नई ऊंचाइयों को छू रही है। बडी-सी दुनिया में अपनी जगह बनाने को निरंतर चल रही है। पतझड और बसंत की जुगलबंदी के बीच जब दरख्तों ने अपने पुराने लिबास झाड दिए हैं और नए ताजा हरे पत्तों के आवरण में खुद को लपेट लिया है, स्त्रियों ने भी अपने भीतर नए आत्मविश्वास, चिंतन और विचारशीलता को आत्मसात करने का संकल्प ले लिया है। बसंत के इसी मदमाते-मोहक मौसम में आता है स्त्रियों का अपना त्योहार यानी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस, जिसकी प्रणेता थीं जर्मनी की शिक्षिका और नारीवादी क्लारा जेटकिन। प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका सीमोन दि बोउवार का कथन है, स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, कोई भी इस बात का प्रमाण नहीं दे सकता कि किसी स्त्री के लिए होमर, अरस्तू, माइकल एंजेलो, बिथोवन बनना असंभव है, लेकिन इस बात का प्रमाण दिया जा सकता है कि कोई स्त्री महारानी एलिजाबेथ, दि बोरा या जॉन ऑफ आर्क बन सकती है, क्योंकि ये उदाहरण खुद में प्रमाण हैं। दिलचस्प बात यह है कि मौजूदा सामाजिक धारणाएं स्त्रियों को जिन कार्यक्षेत्रों के अयोग्य मानती हैं, उनमें ये स्त्रियां पहले ही सफल होकर दिखा चुकी हैं। ऐसा कोई कानून नहीं है जो किसी स्त्री को शेक्सपियर के नाटक लिखने या मोजार्ट के सारे ऑपेरा संगीतबद्ध करने से रोकता हो..।
इतिहास गवाह है
भारत की बात करें तो वैदिक काल में स्त्री पुरुष से कमतर नहीं थी। धर्म और दर्शन के गूढ क्षेत्रों में गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा, घोषा, सुलभा जैसे चरित्र बेहद मजबूत स्थिति में रहे हैं। इतिहास में हम झांसी की रानी, रजिया सुल्तान, नूरजहां, मुमताज महल जैसे किरदारों के बारे में पढते हैं। उन्नीसवीं सदी में राजा राममोहन रॉय और उनके ब्रह्म समाज, ईश्वरचंद विद्यासागर, दयानंद सरस्वती और आर्य समाज, पारसी और ईसाई समुदायों के संयुक्तप्रयासों से 1902 में स्त्री मुक्ति की दिशा में सराहनीय कार्य हुए। 1904 में एनी बेसेंट ने एक गर्ल्स कॉलेज की स्थापना की। 1916 में दिल्ली में पहले गर्ल्स मेडिकल कॉलेज और मुंबई में एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय स्थापित हुए। 1927 में पहली बार भारतीय महिला कॉन्फ्रेंस हुई। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में राजकुमारी अमृत कौर, दुर्गाभाई देशमुख, विजयलक्ष्मी पंडित, सरोजनी नायडू, मैडम भीकाजी कामा जैसी स्त्रियों के नाम उल्लेखनीय हैं तो आजादी के बाद लौह महिला इंदिरा गांधी जैसी शक्तिशाली प्रधानमंत्री बनीं।
होंगे कामयाब एक दिन
21 वीं सदी तो स्त्रियों की है। न सिर्फ विभिन्न रोजगारों में बल्कि राजनीति, विज्ञान जैसे क्षेत्रों में भी उन्होंने अपनी विजय पताका फहराई है। विभिन्न स्त्रोतों से मिले आंकडों को एकत्र करें तो आज के समय में आईटी इंडस्ट्री, बीपीओ, चिकित्सा, प्रशासन, व्यवसाय, सैन्य क्षेत्रों में उनकी दमदार मौजूदगी नजर आने लगी है। आई टी इंडस्ट्री में 1981 में जहां पुरुषों के मुकाबले सिर्फ 19.7 प्रतिशत स्त्रियां काबिज थीं, वहीं 1991 में यह संख्या 22.7 फीसदी हो गई। नैसकॉम के ताजा आंकडे बताते हैं कि पिछले दो वर्षो में भारत में स्त्रियों के लिए रोजगार में लगभग 18 फीसदी तक बढोतरी हुई है। माना जा रहा है कि वर्ष 2010 तक स्त्री तकनीशियनों की संख्या 50 फीसदी तक बढ जाएगी। सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में पिछले वर्ष के अंत तक लडकियों का अनुपात 76-26 था, लेकिन आगे 2008 के अंत तक यह अनुपात 76-36 तक हो जाएगा, इसकी पूरी संभावना व्यक्त की जा रही है।
स्त्रियों के पक्ष में हैं संस्थाएं
कंपनियों ने भी स्त्रियों के हित में कार्य स्थितियों को काफी हद तक बदला है। तमाम संस्थान मानने लगे हैं कि स्त्रियां ज्यादा ईमानदार कर्मचारी साबित होती हैं, लिहाजा वे इस बात पर सहमत हैं कि स्त्रियों को घर और दफ्तर के बीच सामंजस्य बिठाने के लिए हरसंभव सुविधाएं प्रदान की जाएं। मसलन उनके काम के घंटे कम किए जाएं, उनके लिए पार्ट टाइम नौकरियों की व्यवस्था की जाए, छोटे बच्चों की मांओं को सुविधा रहे, इसलिए दफ्तरों में क्रेश बनाए जाएं, उन्हें आने-जाने की सुविधा देने के साथ ही अपने ढंग से कार्य करने की आजादी दी जाए।
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