नई दिल्ली। 'चक दे इंडिया' का कोच कबीर खान फाइनल मैच से पहले अपने खिलाड़ियों को जिंदगी से 70 मिनट चुराने का मंत्र देता है। इन्हीं पलों में उसकी टीम रच देती है जीत का नया इतिहास। लेकिन सैंटियागो में ब्रिटेन के खिलाफ फाइनल में अति आत्मविश्वास की शिकार भारतीय टीम ने लिखा इतिहास का सबसे काला अध्याय।
80 साल में पहली बार ओलंपिक से बाहर होने की इस शर्मिदगी से जल्दी उबर पाना आसान नहीं। खेलों के सबसे बड़े महासमर में कूदने के लिए आखिरी तिलिस्म पर खड़ी भारतीय हाकी टीम ने एक अदना सी टीम के सामने आसानी से घुटने टेककर साबित कर दिया सुनहरे अतीत की थाती ढोने से ही कोई टीम महान नहीं बनती। इसके लिए चाहिए हर पल जोर मारता जीत का जज्बा, जो भारतीय हाकी के पास नहीं है। इसके लिए ठीकरा आला हुक्मरानों और उनके नादिरशाही फरमानों पर फोड़ा जाए। बार-बार बदलते कोचों की रणनीतियों की नुक्ताचीनी की जाए या खिलाडि़यों में नुक्स निकाले जाएं, लब्बोलुआब यही है कि भारतीय हाकी की दशा और दिशा दोनों को दुरुस्त किया जाना लाजमी है।
गाहे-बगाहे क्रिकेट और क्रिकेटरों को आड़े हाथों लेने वाले हाकी पंडितों की जुबां पर भी अब ताले पड़ गए होंगे। क्रिकेट में भारत हर स्तर पर कामयाबी की नित नई इबारतें लिख रहा है तो भारतीय हाकी के ताबूत में एक के बाद एक कील ठुकती जा रही है। बात सिर्फ एक टूर्नामेंट की नहीं है। भारतीय हाकी के पतन की दास्तान को समझने के लिए अर्श से फर्श तक के सफर का सिंहावलोकन जरूरी है।
ओलंपिक में 1928 में पदार्पण करने वाली भारतीय हाकी टीम ने 1956 तक लगातार छह स्वर्ण जीतकर अपना परचम लहराया था। बात सिर्फ पदकों की नहीं, बल्कि भारतीय पारंपरिक हाकी के उस जादू की है जो कभी सिर चढ़कर बोलता था। जिसने ध्यानचंद जैसे नगीने विश्व हाकी को दिए।
सन् साठ के रोम ओलंपिक के फाइनल में पाकिस्तान के हाथों हार के बाद लगा कि जीत का सिलसिला हमेशा के लिए टूट गया। लेकिन फिर चार साल बाद टोक्यो में टीम ने वापसी की। फिर 1968 और 1972 में उसे कांस्य से ही संतोष करना पड़ा। 1976 में तो भारतीय टीम सातवें स्थान पर रही और ओलंपिक के इतिहास में पहली बार खाली हाथ लौटी।
मास्को ओलंपिक 1980 में जीता पीला तमगा भारतीय हाकी के स्वर्णिम इतिहास की आखिरी धरोहर थी। उस समय भी जर्मनी, हालैंड और इंग्लैंड ने ओलंपिक का बहिष्कार किया था। इसके बाद से लगातार पतन की राह पर चल पड़ी भारतीय हाकी का सबसे खौफनाक डर आज हकीकत में बदल गया जब इतने लंबे समय तक दुनिया भर को हाकी का ककहरा सिखाने वाली टीम खुद ओलंपिक की दौड़ से ही बाहर हो गई।
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